मंगलवार, 30 मार्च 2010

नि: शब्द प्रेम

३ वर्ष पहले की बात हे, मैंने एक प्रतिष्ठित पेशा छोड़कर एक सरकारी महकमा ज्वाइन कर लिया था . मेरी पहली पोस्टिंग एक कसबे में हुई थी. ऑफिस के पास ही कालोनी में एक मकान लेकर रहने लगा. एक दिन जब में ऑफिस से मकान पर जा रहा था तो रास्ते में मेरी नज़र एक घर की बालकॉनी पर उड़ते हुए एक सफ़ेद दुपट्टे पर पड़ी. दुपट्टे को सँभालते हुए एक नाजुक सा हाथ आगे आया और सामने आया एक सुंदर सा मुखड़ा.योवन में हिल्लोरे खाता उसका चंचल मुखड़ा, केशो का गुच्छा जैसे घटाए घिर आई हो, कमल की दो पंखुड़ियों से भी सुन्दर होंठ, आँखें जिनमे सौ मैखानों से भी ज्यादा नशा था, जहाँ पर आकर कोई भी अपनी सुध-बुध खो बैठे, और सफ़ेद लिबास में लिपटा उसका गौरा बदन, यूँ लग रहा था जैसे हिम की धवल चादर पर चन्द्रमा का अक्ष चमक रहा हो. कुछ क्षणों के लिए तो में अपनी सुध-बुध ही खो बैठा. अपने आप को सँभालते हुए आगे बढ़ा लेकिन नज़रें उसी पर टिकी थी. हृदय में एक सुखद अनुभूति हुई.

अगले दिन ऑफिस के बाद में फिर उसी रास्ते से इस उम्मीद के साथ गुजरता हूँ कि आज फिर से वो दिख जाये. वो वही बालकॉनी पर खड़ी थी में उसको देखे जा रहा था कि उसकी निगाह भी मुझ पर पड़ती हे.फिर तो यह सिलसिला बन जाता हे. एक शाम को वह अपनी बालकनी पर नहीं दिखाई देती हे. में उसके घर के सामने ही रुक जाता हूँ. वह पर एक प्यारा सा बच्चा खेल रहा था. मैंने बच्चे को गोद में उठा लिया और उसको एक चोकलेट दे दी और ये उम्मीद कर रहा था कि सायद हमेशा कि तरह आज भी वो दिख जाये. " शुभम कहाँ गए तुम ?" अंदर से एक सुरीली आवाज़ आती हे जैसे हवा ने कोई साज़ छेड़ा हो, और वह बहार निकल कर आती हे. " ओह! ये आपके पास हे, बहुत शैतान हे ये मेरा भतीजा, आपको परेशां कर देगा" वह कहे जा रही थी. लेकिन मेरा ध्यान उसकी आवाज़ पर न होकर उसके चहरे पर था. वह पास से और भी खुबसूरत नज़र आती थी. " जी बचपन में तो सभी शैतानी करते हे" कहते हुए मैंने शुभम को उसकी गोद में दे दिया. " जी नहीं ये कुछ ज्यादा ही शैतान हे, बचके रहिएगा इससे" वह बड़े ही शोम्य अंदाज़ में कहती हे. " जी अच्छा" कहते हुए में आगे बाद गया.


            अगले दिन वह बालकॉनी में न होकर शुभम को गोद में लिये अपने घर के सामने खड़ी रहती हे. बात करने के लिये मैंने शुभम को फिर चोकलेट दी " आप इस तरह रोज चोकलेट देकर इसको और शैतान बना देंगे" वह शिकायत के अंदाज़ में कहती हे. " बचपन तो होता ही चोकलेट खाने के लिये हे ." मुस्कुराते हुए में उसकी बात का जवाब देता हूँ. यह सिलसिला यूँ ही चलता रहता हे . हर शाम ऑफिस के बाद अब तो बाते होने लगी. उसके साथ ढेरो बाते होती थी, कभी यहाँ की , कभी वहां की , बात- बात पर उसको हँसाने की कोशिश करता था में. उसको हंसते हुए देखकर मुझे बहुत अच्छा लगता था. उसके साथ बैठकर में ढलता हुआ सूरज देखता था. उसके पास होने का अहसास ढलती हुए शाम को और भी गुलाबी बना देता था.उसकी बातो से झड़ते हुए फूल मुझ को जीवन कि अनुभूति करवाते थे. रात को भी में उसी के विचारो में खोया रहता था और उसके साथ बिताये हुए पालो को याद करता और न जाने कब नींद मेरी पलकों में घर बना लेती.


उसके प्रति मेरा आकर्षण बढ़ाते ही जा रहा था . मेरे हृदय में उसके लिये भाव उत्पन्न हो चुके थे और में और चाहता था कि अपनी भावनाए उसको बता दू . लेकिन में असमंजस में था कि क्या उसके दिल में भी मेरे लिये कोई जगह बन पाई हे या ये सिर्फ दोस्ती ही हे ? और उससे बड़ी बात थी परिवार और समाज वालो का डर. हम दोनों अलग जाति के जो थे . अपने परिवार और समाज से विद्रोह करने का साहस मुझमे नहीं था. नौका अगर लहरों से विपरीत दिशा में चले तो उसके बिखरने का डर रहता हे.

लेकिन अब मैंने निर्णय कर लिया था कि अपने हृदय को उसके सामने रख दूंगा. समाज के सारे बन्धनों को तोड़ते हुए अपनी भावनाओ को शब्दों में पिरोकर आज उससे कह दूंगा " में तुम्हे चाहता हु और उम्र भर के लिये तुम्हारा साथ चाहता हूँ." अब तो बस ऑफिस से छुट्टी होने का इंतज़ार कर रहा था. छुट्टी होते ही जल्दी से में उसके घर के सामने पहुच गया लेकिन आज वो वहां नहीं दिखाई दी. कुछ क्षणों के लिये मैंने प्रतीक्षा कि लेकिन वो नहीं दिखी और में उदास होकर अपने कमरे पर आ गया.


में आकर बैठा ही था कि दरवाजे कि घंटी बजी और मैंने उठकर दरवाज़ा खोला. देखा तो सामने वही खड़ी थी . उसके हाथों में कागज के जैसा कुछ था मैंने सोच " शायद जो मेरे मन में हे वही इसके मन में भी हे और मन के इन्ही भावों को वह कागज पर उतारकर लायी हे . शायद यह प्रेम पत्र हे " में सोच रहा था कि वह बोली " ये लो इन्दर मैंने पूरी हसरत से अपना हाथ आगे बढाया " यह मेरी शादी का कार्ड हे " उसने ये शब्द बोले ही थे कि जैसे मेरे सारे शरीर में बिजली कोंध गयी. धरती थम गयी, आसमा फट पडा, पक्षी चहकना भूल गए , बसंत में सारे फूल मुरझा गए हो , मेरी सांसे अव्यवस्थित हो गयी, मैं सोचने लगा ' मेरी साड़ी दुनिया मेरे सामने ही उजड़ रही हे और में मूक दर्शक कि भांति तमाशबीन बनकर खड़ा हूँ.'


उसका कहना जारी था " पापा ने मेरी शादी जयपुर के एक बड़े घर में तय कर दी हे, और मैंने मना भी नहीं किया. और करती भी किस उम्मीद पर? में नहीं जानती तुम्हारे दिल में क्या हे , लेकिन में तो तुम्हारा ही नाम ले - लेकर करवाते बदलने लगी थी . पिछले ६ महीनो से इंतज़ार कर रही हूँ कि कभी तो तुम मेरे दिल का हाल समझोगे और अपनी चाहत का इजहार करोगे. लेकिन तुम्हारी तरफ से कोई इशारा तक नहीं मिला मुझे "


" हम लोग घंटो एक साथ बैठकर बाते करते थे, बात-बात में हंसी मजाक, जब कभी हमारी नज़ारे टकरा जाती थी तो तुम्हारी आँखों में इन्द्रधनुष उतर आता था, तुम्हारे गालो का रंग और भी गुलाबी हो जाता था .... और में तो हर पल तुम्हारे साथ में ही गुजरना चाहता था, तुमसे मिलना होता था इसीलिए में रविवार को भी अपने घर नहीं जाता था, तुम इतनी नासमझ तो नहीं थी जो इन सब का मतलब भी न समझ पाओ" मैंने भारी मन से कहा.


" एक लड़की को समझ कि नहीं स्पस्ट शब्दों कि जरुरत होती हे जो उसको उम्र भर सहारा दे सके इन्दर "


" लेकिन मैंने तो आज ही तुमसे कहने का फैसला कर लिया था आशा "


" अब कुछ नहीं हो सकता, अब तो बहुत देर हो चुकी हे इन्दर, हो सके तो तुम मेरी शादी में आ जाना...... विदाई से पहले में एक बार तुम्हे और देखना चाहती हु" उसकी पलकों पर मोती बिखर आये थे और वह चली गयी .


में सोचने लगा " मेरे सपनो का महल तो मिटटी के घरोंदे कि तरह चकनाचूर हो रहा हे, मेरे अरमान तो शीशे के टुकडो कि तरह बिखर गए रहे हे " में उस दुनिया बनाने वाले भगवान से पूछने लगा " तुमने मेरे साथ इतना बड़ा अन्नाय क्यों किया हे ? जिसको में अपनी सांसो से भी ज्यादा चाहता हूँ वह मुझ को छोड़कर किसी और के साथ जा रही हे , मेरे साथ इतना क्रूर मजाक करते हुए तेरा कलेजा एक बार भी नहीं पसीजा ?" अचानक बिजली कि चमक के साथ तेज बारिश होने लगी. शायद भगवान ने मेरी आवाज़ सुन ली और वह भी मेरे साथ अपनी भूल पर आंसू बहा रहा था . अब तो दिल बस यही दुआ कर रहा था


' ए खुदा तू मुझ पर एक एहसान कर दे

मेरी हसरतो से पहले मेरे जनाजा निकाल दे '


उसकी शादी हो रही थी, शहनाई बज रही थी, यह शहनाई नहीं मेरे लिये एक मातम का क्रंदन था, उसकी डोली उठ रही थी , यह डोली नहीं मेरे दिल के अरमानो कि अर्थी थी . जब में विदाई के समय उसे दिखाई दिया तो वो अपनी बहन से चिपककर और जोर-जोर से रोने लगी , जाने क्यों? में अपने आप से कह रहा था ....

' आपने इश्क के इजहार की में हिम्मत न कर पाया

अब उम्र हर रोता रहूँगा उसकी याद में '


वह ससुराल जा चुकी थी, मेरे लिये वह क़स्बा शमशान बन चूका था . मेरा किसी भी काम में अब मन नहीं लगता था. ऑफिस में कुछ भी अच्छा नहीं लगता था मुझको. मेरे लिये वो गलियां, उस के घर कि वो बालकॉनी जहाँ पर मैंने उसे पहली बार देखा था, सब वीरान हो चुकी थी , चारो तरफ अँधेरा छा गया था, और कुछ नहीं था साथ मेरे, में, मेरी तन्हाई और उसकी यांदे . अपने आप से कहने के लिये इसके सिवा कुछ नहीं बचा था:-



' मेरी आँखों में तेरी ही नमीं  हे

दिल कि धडकनों में तेरी ही कमी हे

कोशिश हज़ार कि तुझको भुलाने की

फिर भी याद तेरी न थमी हे

चल रहा अँधेरे में अब में

इन अंधेरो में भी तेरे ही प्यार की रौशनी हे '



आज भी में उसके इंतज़ार में बैठा हूँ, जबकि जानता हु की वो नहीं आएगी, कभी नहीं आएगी .......

8 टिप्‍पणियां:

  1. inderji....sabse pehle ham apko nishabd prem ki rachna par badhai denge.

    apki rachana me mishran bahut achha hai...prakratik chhata ka, saudarya ka, virah ka aur kisi ko khone ka. sath me apne rachna ko bahut ache tarike se prastut kiya hai............padhkar bahut achhi lagi....aage bhi likhte rahiye..............shubhkaamnao

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  2. रास्ते में मेरी नज़र एक घर की बालकॉनी पर उड़ते हुए एक सफ़ेद दुपट्टे पर पड़ी. दुपट्टे को सँभालते हुए एक नाजुक सा हाथ आगे आया और सामने आया एक सुंदर सा मुखड़ा.योवन में हिल्लोरे खाता उसका चंचल मुखड़ा, केशो का गुच्छा जैसे घटाए घिर आई हो, कमल की दो पंखुड़ियों से भी सुन्दर होंठ, आँखें जिनमे सौ मैखानों से भी ज्यादा नशा था, जहाँ पर आकर कोई भी अपनी सुध-बुध खो बैठे, और सफ़ेद लिबास में लिपटा उसका गौरा बदन, यूँ लग रहा था जैसे हिम की धवल चादर पर चन्द्रमा का अक्ष चमक रहा हो. कुछ क्षणों के लिए तो में अपनी सुध-बुध ही खो बैठा. अपने आप को सँभालते हुए आगे बढ़ा लेकिन नज़रें उसी पर टिकी थी.

    behad khoobsurat varnan......!!

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  3. bahoot khoob.

    badhai itni sundar rachna ke liye aur ye kaamna karte he ki jald hi aapko koi aur ladki apni baalkani par khadi dikhai de.

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